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वै॒श्वा॒न॒रं मन॑सा॒ग्निं नि॒चाय्या॑ ह॒विष्म॑न्तो अनुष॒त्यं स्व॒र्विद॑म्। सु॒दानुं॑ दे॒वं र॑थि॒रं व॑सू॒यवो॑ गी॒र्भी र॒ण्वं कु॑शि॒कासो॑ हवामहे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vaiśvānaram manasāgniṁ nicāyyā haviṣmanto anuṣatyaṁ svarvidam | sudānuṁ devaṁ rathiraṁ vasūyavo gīrbhī raṇvaṁ kuśikāso havāmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वै॒श्वा॒न॒रम्। मन॑सा। अ॒ग्निम्। नि॒ऽचाय्य॑। ह॒विष्म॑न्तः। अ॒नु॒ऽस॒त्यम्। स्वः॒ऽविद॑म्। सु॒ऽदानु॑म्। दे॒वम्। र॒थि॒रम्। व॒सु॒ऽयवः॑। गीः॒ऽभिः। र॒ण्वम्। कु॒शि॒कासः॑। ह॒वा॒म॒हे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:26» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नव ऋचावाले छब्बीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि आदि से विद्वान् क्या सिद्ध करें, इस विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (कुशिकासः) उपदेशक जन (हविष्मन्तः) देने योग्य वस्तुओं से युक्त (वसुयवः) धन इकट्ठा करने में तत्पर हम लोग (मनसा) विज्ञान से (निचाय्य) निश्चय कराकर (स्वर्विदम्) धन की प्राप्ति करानेवाले (रण्वम्) शब्द करते हुए (रथिरम्) सुन्दर वाहनों से युक्त (अनुषत्यम्) सत्य के अनुकूल (सुदानुम्) उत्तम पदार्थों के देनेवाले (देवम्) प्रकाशकारक (वैश्वानरम्) सम्पूर्ण मनुष्यों के प्रकाशकर्त्ता (अग्निम्) अग्नि को (हवामहे) ग्रहण करते हैं, वैसे आप लोग भी इस अग्नि का (गीर्भिः) वाणियों से स्वीकार करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य अग्नि के गुणकर्मस्वभावों का निश्चय करके कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही पृथिवी आदि पदार्थों के गुणकर्मस्वभावों के निश्चय और उपकार से कार्य्यों को सिद्ध करो ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्न्यादिना विद्वद्भिः किं साध्यमित्याह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा कुशिकासो हविष्मन्तो वसुयवो वयं मनसा निचाय्य स्वर्विदं रण्वं रथिरमनुषत्यं सुदानुं देवं वैश्वानरमग्निं हवामहे तथा यूयमप्येनं गीर्भिः स्वीकुरुत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वैश्वानरम्) विश्वेषां नराणां प्रकाशकम् (मनसा) विज्ञानेन (अग्निम्) पावकम् (निचाय्य) निश्चयं कारयित्वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (हविष्मन्तः) बहूनि हवींषि दातव्यानि विद्यन्ते येषान्ते (अनुषत्यम्) सत्यस्यानुकूलम् (स्वर्विदम्) स्वः सुखं विन्दति येन तम् (सुदानुम्) शोभनानान्दातारम् (देवम्) प्रकाशकम् (रथिरम्) रथा रमणीयानि यानानि भवन्ति यस्मिँस्तम् (वसुयवः) ये वसूनि युवन्ति मिश्रयन्ति ते। अत्रान्येषामपीत्युकारदीर्घः। (गीर्भिः) वाग्भिः (रण्वम्) शब्दायमानम् (कुशिकासः) उपदेशकाः (हवामहे) गृह्णीयाम ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मनुष्या अग्नेर्गुणकर्मस्वभावान्निश्चित्य कार्य्याणि साध्नुवन्ति तथैव पृथिव्यादीनां गुणकर्मस्वभावनिश्चयोपकाराभ्यां कार्य्याणि साध्नुवन्तु ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान, अग्नी व वायूच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी माणसे अग्नीच्या गुणकर्मस्वभावाचा निश्चय करून कार्य सिद्ध करतात, तसेच पृथ्वी इत्यादी पदार्थांच्या गुणकर्मस्वभावाचा निश्चय करून उपकाराचे कार्य सिद्ध करा. ॥ १ ॥